________________
- (९४) विवेकचूडामणिः । ___ जैसे रज्जुमें सर्पका भ्रम होनेपर अनेक तरहका भय और दुःख होताहै पश्चात् दीपसे अच्छेतरह विचारनेसे रज्जुका यथार्थ ज्ञान होनेसे तो यावत् भय और दुःख नष्ट होजाताहै तैसे आवरणशक्तिसे जो ईश्वरमें जगत्का मिथ्याज्ञान हुआ है उस मिथ्याज्ञानसे जो दुःख प्राप्त है सो सब दुःख यथार्थ विचारसे जगत में जो आत्मज्ञानहोगा तो उसी आत्मज्ञानसे नष्ट होगा इस लिये संसार बन्धसे मोक्ष होनेके निमित्त आत्मवस्तुका ज्ञान सम्पादन करना उचितहै ॥ ३४९ ॥
अयोनियोगादिव सत्समन्वयान्मात्रादिरूपेण विजृम्भते धीः। तत्का>मेत वितयं यतो मृषा दृष्टं भ्रमस्वप्रमनोरथेषु ॥ ३५० ॥ जैसे अग्निका संयोग होनेसे चैतन्य लोहेका विलक्षणरूप दीखताहै तैसे सब्रह्ममें अन्वित होनेपर मात्रारूपसे बुद्धि भी बढती हे चैतन्यके योग विना केवल बुद्धिमें प्रकाशकता नहीं रहती क्योंकि भ्रम दशामें
और स्वप्नावस्थामें मनोरथमें बुद्धिका कार्य सब मिथ्याही देखा गया है ॥ ३५० ॥
ततो विकाराः प्रकृतेरहंमुखा देहावसाना विषयाश्च . सर्वे । क्षणेऽन्यथा भावितया ह्यमीषाममयमात्मा तु कदापि नान्यथा ॥ ३५१ ॥
अहंकार आदि देह पर्यंत जितना प्रकृतिका विकार है व जितना विषय है सो सब अच्छी रीतिसे विचार करनेपर मिथ्या मालूम होता है और आत्मा तो सदाही एक रस रहता है ॥ ३५१॥ नित्याद्वयाखण्डचिदेकरूपो बुद्धयादिसाक्षी सदसद्विलक्षणः । अहंपदप्रत्ययलक्षितार्थः प्रत्यकू सदानन्दघनः परात्मा ॥ ३५२॥