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जो साधु जीत इन इन्द्रिय- हाथियों को,
आत्मार्थ जा, वन बसें, तज ग्रन्थियों को । पूजूं उन्हें सतत वे मुझको जिलावें,
पानी सदा दृगमयी कृषि को पिलावें । । ८५ ।।
मैं उत्तमाङ्ग उसके पद में नमाता,
जो है क्षमा- मणि से रमता - रमाता । देती क्षमा अमित उत्तम सम्पदा को,
भाई ! अतः तज सभी जड़-संपदा को ।। ८६ ।।
ना वन्द्य है, न नय निश्चय मोक्ष- दाता,
ना है शुभाशुभ, नहीं दुःख को मिटाता । मैं तो नमूं इसलिए मम ब्रह्म को ही,
सद्यः टले दुःख, मिले सुख और बोधि ।। ८७।।
सत् चेतना हृदय में जब देख पाता,
आत्मा मदीय भगवान समान भाता ।
तू भी उसे भज जरा, तज चाह- दाह,
क्यों व्यर्थ ही नित व्यथा सहता अथाह ।।८८।।
'' गम्भीर-धीर यति जो मद ना धरेंगे,
औ भाव- -पूर्ण स्तुतिभी निज की करेंगे ।
""
वे शीघ्र मुक्ति ललना वर के रहेंगे, ऐसा जिनेश कहते
-
'सुख को गहेंगे
आत्मावलोकन कदापि न नेत्र से हो,
पूरा भरा परम पावन बोधि से जो । आदर्श-रूप अरहन्त हमें बताते,
।। ८९ ।।
कोई कभी दृग बिना सुख को न पाते ।। ९०।।
जो 'वीर' के चरण में नमता रहा है,
चारित्र का वहन भी करता रहा है । गोत्र का दृग बिना, मद ढो रहा है ।
विज्ञान को न गहता, जड़ सो रहा है ।। ९१।।