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________________ धिक्कार ! मोक्ष-पथ से च्युत हो रहा है, तू अंग-संग ममता रखता अहा है । . भाई ! अतः सह रहा नित दुःख को ही, ले ले विराम अघ से, तज मोह मोही ! ।।९२।। जो सन्त हैं, समयसार-सरोज का वे, __ आस्वाद ले भ्रमर -से पर में न जावें । सम्यक्त्व हो न पर से, निज आत्म से ही, भाई सुधा रस झरे शशि बिम्ब से ही ।।९३।। आया हुआ उदय में यह पुण्य पिण्ड, औ पाप, भिन्न मुझको जड़ का करण्ड । ब्रह्मा न किन्तु पर है, वर बोध भानु, मैं सर्व गर्व तज के इस भांति जानूं।।९४।। साधु सुधार समता, ममता निवार, __ जो है सदैव शिव में करता विहार । तों अन्य साधु तक भी उसके पदों में, .. होते सुलीन अलि-से, फिर क्या पदों में ?।।९५।। प्रायः सभी कुतप से सुर भी हुए हैं, लाखों दफा असुर हो, मर भी चुके हैं। दैदीप्यमान नहिं 'केवलज्ञान' पाया, हे वीर देव । हमने दुःख ही उठाया ।। ९६ ।। “सानन्द यद्यपि सदा जिन नाम लेते, ___ योगी तथापि न निजातम देख लेते । तो वे उन्हें शिवरमा मिलती नहीं है,'' तेरा जिनेश ! मत ईदृश क्या नहीं है।।।९७।। अत्यन्त मोह-तम में कुछ ना दिखेगा, तू आत्म में रह, प्रकाश वहां मिलेगा। स्वादिष्ट मोक्ष-फल वो फलतः फलेगा, 'उद्दीप्त दीपक सदैव अहो ! जलेगा ।।९८।। (६)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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