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'कैवल्य-साधन न केवल नग्न-भेष,'
त्रैलोक्य वन्य इस भांति कहें जिनेश । इत्थम् न हो, पशु दिगम्बर क्या न होते ?
__ होते सुखी ? दुखित क्यों दिन रात रोते ? ।।७८।।
''संसार की सतत वृद्धि विभाव से है,
. तो मोक्ष सम्भव स्वतन्त्र स्वभाव से है। हो जा अतः अभय, हो विभु में विलीन,''
हैं केवली-वचन ये - 'बन जा प्रवीण'। ।।७९।।
सम्यक्त्व नीलम गया जिसमें जड़ाया,
चारित्र का मुकुट ना सिर पै चढ़ाया। तू ने तभी परम आतम को न पाया,
- पाया अनन्त दुःख ही, सुख को न पाया ।।८।।
जो काय से वचन से मन से सुचारे, . पा बोध, राग मल धोकर शीघ्र डारे। ध्याता निरन्तर निरंजन जैन को है,
पाता वही नियम से सुख चैन को है ।। ८१।।
दुस्संग से प्रथम जीवन शीघ्र मोड़ो,
- तो संग को समझ पाप तथैव छोड़ो। विश्वास भी कुपथ में न कदापि लाओ,
__ शुद्धात्म को विनय से तुम शीघ्र पाओ ।।८२।।
पत्ता पका गिर गया तरु से यथा है,
योगी निरीह तन से रहता तथा है । औ ब्रह्म को हृदय में उसने बिठाया,
. तू क्यों उसे विनय से स्मृति में न लाया।। ८३ ।।
वाणी, शरीर, मन को जिसने सुधारा,
सानन्द सेवन करे समता-सुधारा । धर्माभिभूत मुनि है वह भव्य जीव,
शुद्धात्म में निरत है रहता सदैव ।। ८४।।