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लेवें निजीय विधि का मुनि वे सहारा,
संसार मूल जड़ वैभव को बिसारा"। ना चाहते विबुध वे यश सम्पदा को,
हां, चाहते जड़ उसे, सहते व्यथा को ।। ५७ ।।
संसार में सुख नहीं, दुःख का न पार,
ले आत्म में रुचि भला, सुख हो अपार । सिद्धान्त का मनन या कर चाव से तू,
क्यों लोक में भटकता पर भाव से तू ? ।। ५८ ।।
जो भी रहे समय में रत, मौन धारे,
पाते अलौकिक सही सुख शीघ्र सारे । वो विज्ञ ना समय का, वह कष्ट पाता,
पीड़ार्त हो, समय है जब बीत जाता । । ५९
आत्मा अनन्त-गुण-धाम, सदैव जानो,
सम्यक्त्व प्राप्त करके निज को पिछानो । जाओ वहां, इधर या तुम शीघ्र आओ,
आदेश ईदृश नहीं पर को सुनाओ ।। ६०॥
भोगे हुए विषय को मन में न लाता ।
औ प्राप्त को पकड़ना न जिसे सुहाता । कांक्षा नहीं उस अनागत की करेगा,
वो सत्य पाकर कभी अहि से डरेगा ? ।। ६१ ।।
हे वीर देव ! तुमको नमते मुमुक्षु,
पीते तभी स्वरस को सब सन्त भिक्षु । क्यों बीच में मनुज तेज कचौड़ि खाते ?
पश्चात् अवश्य फलतः हलुवा उड़ाते ।।६२।।
चारित्र का नित समादर जो करेंगे,
वे ही जिनेन्द्र - पद की स्तुति को करेंगे । ऐसा सदैव कहती प्रभु भारती है,
नौका-समान भव पार उतारती है ।। ६३ ।।