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________________ संसार सागर किनार निहारना है, तो मार मार, दृग को द्रुत धारना है । औ ! जातरूप 'जिन' को नित पूजना है, भाई ! तुझे परम आतम जानना है ।।५।। सल्लीन हों स्वपद में सब सन्त साधु, शुद्धात्म के सुरस के बन जाये स्वादु । वे अन्त में सुख अनन्त नितान्त पावें, सानन्द जीवन शिवालय में बितावें ।।५१।। ' ये रोष-रागमय भाव विकार सारे, मेरे स्वभाव नहि हैं ' --- बुध यों विचारें। ये पाप पुण्य, इनमें फिर मौन धारे, __औ देह-स्नेह तजके निज को निहारे ।। ५२।। संसार के जलधि से कब तैरना हो, . ऐसी त्वदीय यदि हार्दिक भावना हो। आस्वाद ले जिनप-पाद-पयोज का तू, ना नाम ले अब कभी उस 'काम' का तू ।। ५३।। संसार-बीच बहिरातम वो कहाता, झूठा पदार्थ गहता, भव को बढ़ाता । बेकार मान करता निज को भुलाता, लक्ष्मी उसे न वरती, अति कष्ट पाता ।।५४।। जो पाप से रहित चेतन मूर्ति प्यारी, हो प्राप्त शीघ्र उनको भव-दुःखहारी । जो भी महाश्रमण हैं निज गीत गाते, सच्चे क्षमादि दश धर्म स्वचित्त लाते ।।५५।। सम्यक्त्व-लाभ वह है किस काम आता, है कर्म का उदय ही यदि पाप लाता । तो हाय ! मुक्ति-ललना किसको वरेगी ? वो सम्पदा अतुलनीय किसे मिलेगी ।। ५६।।
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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