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________________ आहार जो न करते समयानुसार, औधारते न रतनत्रय रूप हार । रागाग्नि से सतत वे जलते रहेंगे, संसार वारिधि महा फिर क्यों तिरेंगे ? ।। ६४ ।। देखो सखे ! अमर लोग सुखी न सारे, वे भी दुःखी सतत, खेचर जो बिचारे । दुःखार्त्त ही दिख रहे नर मेदिनी में, शुद्धात्म में रम अतः, मन रागिनी में ।। ६५ ।। कामाग्नि से परम तप्त हुआ सदा से, तू आत्म को कर सुतृप्त स्व की सुधा से । कोई प्रयोजन नहीं जड़ सम्पदा से, पा बोध, हो नर ! सुखी अति शीघ्रता से ।। ६६ ।। सम्बन्ध द्रव्य श्रुत से नहिं मात्र रक्खो, "" रक्खो स्वभाव श्रुत से, निज स्वाद चक्खो । है मेदिनी तप गई रवि ताप से जो, क्यों शांत हो जल बिना, जल नाम से वो । । ६७ ।। 'पर्याय वो जनमती मिटती रही है । त्रैकालिकी यह पदार्थ, यही सही है । " श्री वीर देव जिन की यह मान्यता है, पूजूं उसे विनय से यह साधुता है ।। ६८।। संमोह राग मद है यदि भासमान, या विद्यमान मुनि के मन मेंऽभिमान । आनन्द हो न उस जीवन में कदापि, हा ! हा ! वही नरक कुण्ड बना ऽतिपाषी ।। ६९।। श्रद्धाभिभूत जिसने मुनि लिंग धारा, कंदर्प को सहज से फिर मार डारा | अत्यन्त शान्तं निजको उसने निहारा, औ अन्त में बल ज्वलन्त अनन्त धारा ।। ७०॥
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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