________________
सम्बन्ध होत विधि से विधि का सदा है,
बोधैकधाम 'जिन' ने जग को कहा है। ऐसा रहस्य फिर भी मुनि ने गहा है,
जो आत्मभाव करता साहस रहा है ।।२९।।
आत्मानुभूति वर चेतन-मूर्ति प्यारी,
साक्षात् यदा उपजती शिवसौख्यकारी । मांगे तथापि मुनि क्या जग-सम्पदा को?
देती सदा जनम जो बहु आपदा को ।।३०।।
संपू भोग मिलने पर भी कदापि,
भोगी नहीं मुनि बने, बनते न पापी । पीते तभी सतत हैं समता सुधा को, . . गाली मिले, न फिर भी करते क्रुधा को ।।३१।।
मिथ्यात्व को हृदय में, मत स्थान देना,
___ है दुष्ट व्याल वह, क्यों दुःख मोल लेना । छोड़ो उसे, निकट भी उसके न जाओ,
तो शीघ्र ही अतुल संपति-धाम पाओ ।।३२।।
जैसे कहे जलज जो जल से निराला,
वैसे बना रह सदा जड़ से खुशाला। .. क्यों तू प्रमत्त बनता, बन भोग त्यागी,
रागी नहीं बन कभी, बन वीतरागी ।।३३।।
हूं देह से पृथक चेतन शक्ति वाला,
स्वामी ! सदैव मुझसे तन भी निराला । यों जान, मान तन का मद छोड़ता हूं,
___ मैं मात्र मोक्ष-पथ से मन जोड़ता हूं ।।३४।।
हो काम नष्ट, अघ भी मिटता यदा है,
• योगी विहार करता निज में तदा है । आकाश में विहग क्या फिर भी उड़ेगा ?
जो जाल में फंस गया, फिर क्या करेगा ? ।।३५।।
(५६)