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________________ है ज्ञान जो सघन पावन पूर्ण प्यारा, सद्ज्ञान रूप जल की झरती सुधारा । शोभामयीं अतुलनीय सुखैक डेरा, नीचे उसे निरख मानस-मोर मेरा ।।२२।। होते घनिष्ठ जिसके दृग-बोध साथी, होता वही चरित आतम का सुखार्थी । देता निजीय सुख, तीरथ भी कहाता, . तू धार मित्र ! उसको दुःख क्यों उठाता ?।।२३।। पीता निजानुभव पावन पेय प्याला, डाले गले शिवरमा उसके सुमाला । जो लोक में अनुपमा शुचि-धारिणी है, ऐसा जिनेश कहते, सुख-कारिणी है ।।२४।। रागादि भाव जिसमें न, वही समाधि, पाके उसे मुदित हो मुनि अप्रमादी। होती नदी अमित सागर पा यथा है, किं वा दरिद्र खुश हो निधि पा अथाह ।।२५।। है देह-नेह भव-कारण तो उसी से, मोक्षेच्छु मैं, बहुत दूर रहूं, खुशी से । मैं हो विलीन निज में, निज को भनूंगा, स्वामी ! अनन्त सुख पा, भव को तजूंगा ।।२६।। जो भी निजानुभव को जब प्राप्त होते, वे रागद्वेष लव को न कदापि ढोते। . तो कौन सा फिर पदार्थ रहा विशेष ? प्राप्तव्य जो कि उनको न रहा विशेष ।।२७।। रागादि भाव पर हैं, पर से न नाता, ज्ञानी-मुनीश रखता पर में न जाता। धिक्कार मूद पर को करता, कराता, ना तत्त्व-बोध रखता, अति दुःख पाता ।।२८।। (५५)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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