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________________ सद्बोध रूप सर. शोभित है विशाल, ना हैं जहां वह विकल्प तरंग-जाल । शोभे तथा परम धर्म पयोज प्यारे, तू छोड़ के मनमराल ! उसे न जा रे ! ।। १५ ।। जीतीं जिनेश ! जिसने निज इन्द्रियां हैं, श्रद्धा माना गया यति वही, जग में यहां है । समेत उसको सिर मैं नमाता, शुद्धात्म को निरख, शीघ्र बनूँ प्रमाता । । १६ । । सद्बोध से परम शोभित जो यहां है, पीयूष पी स्वपद में रमता रहा है । क्या संयमी विषय-पान कदापि चाहे ? जो जीव को विष समान सदैव दाहे ।। १७।। विज्ञान से स्वपद को जिसने पिछाना, त्यागा सभी तरह से पर को सुजाना । वो दुःखरूप उस आस्रव को नशाता, स्वामी ! सही सुखद संवर तत्त्व पाता ।। १८ । । मायादि शल्य-त्रय को मुनि नित्य त्यागें, ज्ञानादि रत्नत्रय धार सदैव जागें । वे शुद्धतत्त्व फलतः पल में लखेंगे, संसार में परम सार, उसे गहेगें ।। १९।। आदेय- हेय जिनने सहसा पिछाने, लाये स्वचिन्तनतया मन को ठिकाने । ज्ञानी वशी परम धीर मुमुक्षु ऐसे, स्वामी ! रखें कुपथ में निजपाद कैसे ? ।।२०।। संसार से बहुत यद्यपि जो डरा है, जाना जिनागम सभी जिसने खरा है । आत्मा उसे न दिखता, यदि है प्रमादी, ऐसा सदैव कहते गुरु सत्यवादी ।। २१ ।। (५४)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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