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________________ जो कर्म को यति यदा करता नहीं है, आत्मा उसे वह तदा दिखता सही है । ऐसा सदैव कहती जिन देव वाणी, होते सुखी सुन जिसे, सब भव्य प्राणी ।।८।। तू छोड़ के विषमयी उस वासना को, निश्चिन्त हो, कर निजीय उपासना को । निर्भ्रान्त ही शिवरमा तुझको वरेगी, योगी कहे, परम प्रेम सदा करेगी ।।९।। हैं पुण्य-पाप पर, पुद्गल रूप जानूं, सम्यक्त्व भाव इनसे किस भांति मानूं । ना नीर के मथन से, नवनीत पाना, अक्षुण्ण कार्य करके थक मात्र जीना ।।१०।। नाना प्रकार तप से तन को तपाया, है छोड़ वस्त्र जिनने अघ को हटाया । पाया निजानुभव को निज को दिपाया, मैंने उन्हें विनय से उर बीच पाया ।। ११ ।। कम्पायमन मन को जिसने न रोका, आत्मा उसे न दिखता जड़ से अनोखा । आकाश में अरुण, शोभित हो रहा है, क्या अन्ध को नयनगोचर हो रहा है ? ।। १२ ।। जो जीता सब क्षुधादि परीषहों को, संहार रागमय-भाव स्ववैरियों को । है वीतराग बनता वह शीघ्रता से, शुद्धात्म को निरखता, बचता व्यथा से ।। १३ ।। है वन्द्य दिव्य निज आतम द्रव्य न्यारा, जो शुद्ध निश्चय नयाश्रित मात्र प्यारा । योगी गृही सम उसे न कभी निहारें, जो त्याग के पुनि परिग्रह - भार धारें ।।१४।। (५३)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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