SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 69
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगी करें स्तवन भाव-भरे स्वरों से, जो हैं सुसंस्तुत नरों, असुरों, सुरों से । वे वर्धमान गतमान मुझे बचावें, काटे कुकर्म मम मोक्ष विभो ! दिलावें ।।१।। जो चन्द्रगुप्त मुनि के गुरु हैं, बली हैं, ___वे भद्रबाहु समधी श्रुत-केवली हैं । वंदूं उन्हें द्रुत भवोदधि पार जाऊं । संसार में फिर कदापि न लौट आऊं ।।२।। हे 'कुन्दकुन्द' मुनि ! भव्य-सरोज-बन्धु, ____ मैं बार-बार तव पाद-सरोज वंदूं । सम्यक्त्व के सदन हो, समता सुधाम । . है धर्म-चक्र शुभ धार लिया ललाम ।।३।। जो 'ज्ञानसागर' सुधी गुरु हैं हितैषी, ___ शुद्धात्म में निरत, नित्य हितोपदेशी । वे पाप-ग्रीष्म ऋतु में जल हैं सयाने, . पूजूं उन्हें सतत केवल-ज्ञान पाने ।।४।। हे शारदे! अब कृपा कर दे जरा तो, तेरा उपासक खरा, भव से डरा जो ! माता ! विलम्ब करना मत, मैं पुजारी, आशीष दो, बन सकूँ, बस निर्विकारी ।।५।। रे ! साधु का निहित है हित साधुता में, धारूँ उसे तज असार असाधुता मैं । भाई अतः श्रमण के हित मैं लिखूगा, शुद्धात्म को सहज से फलतः ललूँगा ।। ६ ।। विद्वान मान मन में मुनि जो न धारें, वे 'वीर' के वचन से मन को सुधारें। जाके रहे विपिन में मन मोद पाते, हैं स्नान आत्म-सर में करते सुहाते ।।७।। (५२)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy