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सौभाग्य से श्रमण जो कि बना हुआ है,
...सच्चा जिसे प्रशमभाव मिला हुआ है । छोड़े नहीं वह कभी उस निर्जरा को,
जो नाशती जनम-मृत्यु तथा जरा को ।। ३६ ।।
संसार में धन न सार, असार सारा,
स्थायी नहीं, न उनसे सुख हो अपारा । है सार तो समय-सार अपार प्यारा,
हो प्राप्त शीघ्र जिससे वह मुक्तिदारा ।।३७।।
निस्संग हो विचरते गिरि-गह्वरों में,
वे साधु ज्यों पवन हैं वन कन्दरों में । कामाग्नि को स्वरस पी झट से बुझा के,
. विश्राम पूर्ण करते निज-धाम जाके ।।३८।।
शोभे सरोज-दल से सर ठीक जैसा,
सध्यान रूप जल से मुनि-मीन वैसा । हो कंज में मृदुपना, न असंयमी में,
'ना शब्द व्योम गुण है' -कहते यमी हैं ।। ३९ ।। ये आर्तरौद्र मुझको रुचते नहीं हैं,
__ संसार के प्रमुख कारण पाप वे हैं । श्री रामचन्द्र फिर भी मृग-भ्रान्ति भूले ?
__जो देख काञ्चन-मृगी इस भांति फूले ।।४।।
योगी निजानुभव से पर को भुलाता,
__ है वीतरागपन को फलरूप पाता। वो क्या कभी मरण से मुनि हो डरेगा ?
शुद्धोपयोग धन को फिर क्या तजेगा ?।। ४१ ।।
जो भानु है, दृग-सरोज विकासता है,
योगी सुदूर रहता उससे यदा है । वो तो तदा नियम से पर भावनायें,
हा ! हा ! करे, सहत है फिर यातनायें ।।४२।।
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