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________________ अर्थ- जो मुनि निज आत्मा का अनुभव करता है वह उस दुर्लभ लक्ष्मी को प्राप्त होता है जो इस जगत् की अनुपम पवित्रता और शोभा को धारण करती है। भावार्थ- बारहवें गुणस्थान में होने वाली आत्माश्रित शुक्लध्यान की भूमिका नियम से अनन्तचतुष्टयरूप अनुपम लक्ष्मी को प्रदान करती है ।।२४।। [२५] समुपलब्धौ समाधौ साधुस्तथागतरागाद्युपाधौ । यथा सरिद् वारिनिधौ मुदमुपैति च निर्धनो निधौ ।।। गतरागाद्युपाधौ समुपलब्धौ समाधौ साधुः तथा मुदम् उपैति, यथा सरित् वारिनिधौ निर्धनः च निधौ (उपैति)। ___समुपलब्धाविति- गतरागा द्युपाधौ गतो विनष्टो रागाद्युपाधिर्यस्मिन् तस्मिन् वीतरागपरिणतिमय इत्यर्थः समाधौ शुक्लध्याने समुपलब्धौ समीचीना उपलब्धिः प्राप्तिर्यस्य तथाभूते सति साधुः श्रमणः तथा तादृशं मुदं हर्षम् उपैति प्राप्नोति यथा यादृशं वारिनिधौ सागरे समुपलब्धे सरित् सवन्ती मुदं प्रमोदमुपैति । यथा च निधौ निधाने समुपलब्धे निर्धनो दरिद्रः समपैति ।।२५।। अर्थ- रागादिरूप उपाधि से रहित शुक्लध्यान के प्राप्त होने पर मुनि उस प्रकार हर्ष को प्राप्त होता है, जिस प्रकार समुद्र के प्राप्त होने पर नदी और खजाना के मिलने पर दरिद्र मनुष्य ||२५|| [२६] भवकारणतो देह-रागात्किल दूरीभवन सदेह । सुखप्रदे स्वपदेऽहमनुवसामि मुनिर्जितादेह! ।। जितादेह ! भवकारणतः देहरागात् इह सदा दूरीभवन् अहं मुनिः सुखप्रदे स्वपदे अनुवसामि | भवेति- हे जितादेह! जितः पराभूतः अदेहोऽनङ्गो येन तत्सम्बुद्धौ हे जितकाम! भवकारणतः भवस्य संसारस्य कारणं निमित्तं तस्मात्। देहरागात् शरीरप्रीतः। इह जगति सदा सर्वदा दूरीभवन् अहं मुनिः सुखप्रदे सुखदायिनि स्वपदे स्वस्थाने, आत्मस्वरूप इति यावत् 'पदं व्यवसितस्थानत्राणलक्ष्माभ्रिवस्तुषु' इत्यमरः। अनुवसामि सततं निवसामि तत्रैव रम इत्यर्थः ।।२६।। ___ अर्थ- हे कामविजेता! जिनेन्द्र! संसार के कारणभूत शरीरसम्बन्धी राग से सदा दूर रहता हुआ मैं मुनि, सुखदायक निजपद में-ज्ञायकस्वभावी निजआत्मा में निवास करता हूँ ।।२६।। (१४)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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