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__[१७] भोगोपभोगेषु रतो न, मानी, योगोपयोगेषु परः प्रमाणी।। नासाग्रदृष्टि न हि सान्यथा ते,
विनेति मानेन मनोऽनुमन्ये ।। भोगेति - भगवन्! त्वं भोगोपभोगेषु भोगाश्च सकृद्भोग्या, उपभोगाश्च, भूयोभूयो भोग्याश्च तेषु भोगोपभोगपदार्थेषु रतो लीनो न, अतएव मानी स्वाभिमानी असि। योगोपयोगेषु ज्ञानध्यानेषु परो लीनः, अतएव प्रकृष्टमानयुक्तोऽसि यदि चेदन्यथा त्वयि मानित्वं प्रमाणित्वं च यदि न स्यात् तर्हि नासाग्रदृष्टि न स्यात्। मानेन विना मनः कुतः स्यादित्यहम् अनुमन्ये ।।१७।।।
अर्थ- हे भगवान्! आप भोग और उपभोग में रत-लीन नहीं हैं इसलिये मानी-स्वाभिमानी हैं तथा योग-ध्यान और उपयोग-ज्ञानदर्शन में पर-तत्पर हैं इसलिये प्रमाणी-प्रकृष्ट मान से युक्त हैं। पक्ष में प्रमाण ज्ञान से सहित हैं। यदि ऐसा । नहीं माना जाय तो आपकी नासाग्रदृष्टि नही हो सकती। मान के विना मन कैसे रह सकता है, यह अनुमान करता हूँ।।१७।।
___ [१८] भूत्वा नरोऽयं सुकृतात् सुसङ्ग. व्रतं कदं नोऽप्यकदं प्रयाति । उदारदातारमगं सरिन्न,
क्षारं च वार्धिं कृपणं समेति ।। भूत्वेति - अयं प्राणी सुकृतात् पुण्यात् नरो मनुष्यो भूत्वा कदं सुखदं व्रतं पापोपरमं न प्रयाति, अपि तु अकदं दुःखदं सुसङ्गं परिग्रहं प्रयाति । यथा सरित् निम्नगा उदारदातारं उत्कृष्टदानशीलम् अगं शैलं वृक्षं वा न समेति प्राप्नोति किन्तु क्षारं लवणस्वभावे कृपणमदातारं वार्धिसागरं समेति ।अतएव च सा निम्नगा कथ्यते।।१८।। __अर्थ - यह प्राणी पुण्य से मनुष्य होकर सुखदायक व्रत को प्राप्त नहीं होता किन्तु दुःखदायक परिग्रह को प्राप्त होता है। उचित ही है क्योंकि नदी उदारदानशील अग-पर्वत अथवा वृक्ष को तो प्राप्त नहीं होती किन्तु खारे और कंजूस समुद्र के पास जाती है ।।१८।।
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