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________________ अवलोकन-अवलोड़न करते जिनश्रुत के अनुवादक हैं, वादीजन को स्याद्वाद से जीते पथ प्रतिपादक हैं। . ज्ञान परीषह सहते मुख से कभी न कहते हम ज्ञानी, ज्ञान कहाँ है तुममें इतना महा अधम हो अज्ञानी।।८५।। नम्र भाव से ज्ञान परीषह जीत-जी रहे मतिवर हैं, तत्त्व ज्ञान से मत्त चित्त को किया नियंत्रित यतिवर हैं। प्रभु पद में रत हुए मुझे भी होने सन्मति दान करें, निलयगुणों के जय हो गुरु की मम गति का अवसान करें।।८६ ।। सहो सदा अज्ञान परीषह नियोग है यह शिव मिलता, अल्पज्ञान पर्याप्त रहा यदि निज अनुभवता भव टलता। बहुत दिनों का पड़ा हुआ है सुमेरु सम तृण ढेर रहा, एक अनल की कणिका से बस! जल मिटता, क्षण देर रहा।।८७।। सत्पथ चलता महाव्रती हो प्रचुर समय वह बीत गया, इन्द्रिय योगों को वश करके गाता आतम गीत जिया। किन्तु अभी तक जगी न मुझमें बोध भानु की किरण कहीं, यूँ न सोचता, मुनिवर तजता समता की वह शरण नहीं।। ८८।। महा मूढ़ है, साधु बना है, शुभकृत जीवन किया नहीं, भविकजनों को सदुपदेश दे उपकृत अब तक किया नहीं। महा मलिन मति चिर से तेरी ज्ञान-नीर से धुली नहीं, . सहे वचन यूँ 'व्यर्थ साधुता' अभी आँख तव खुली नहीं।। ८९।। बच करके अशुभोपयोग से जब शुभ शुचि उपयोग धरूँ, अक्षय सुख देने वाले मुनि-गुण-गण का उपभोग करूँ। किस विध फिर मैं हो सकता हूँ कुधी, कभी नहिं हो सकता, सहता यूँ अज्ञान परीषह मन का मल वह धो सकता।।९।। ज्ञानावरणादिक से चिर से भला-बोध बल मलिन वही, सहने से अज्ञान परीषह निश्चित होता विमल सही। उड़-उड़कर आ रज-कण चिपके धूमिल फलतः दर्पण हो, जल से शुचि हो जिनमत गाता इसे सदा नति अर्पण हो।।९१।। (२७६)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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