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चिर से दीक्षित हुआ अभी तक, ऋद्धि नहीं कुछ सिद्धि नहीं, तथा गुणों में ज्ञानादिक में लेश मात्र भी वृद्धि नहीं। . ऐसा मन में विचार कर मुनि उदासता का दास नहीं, होकर परवश कभी त्यागता जिनमत का विश्वास नहीं।।९२।।
जिन शासन से शासित होकर व्रत पालूँ अविराम सही, किन्तु हुआ ना ख्यात जगत में यश फैला ना नाम कहीं। रहित रहा हो अतिशय गुण से जिन दर्शन यह लगता है, समदर्शन युत मुनि मन में ना ऐसा संशय जगता है।। ९३।।
अल्प मात्र भी ऐहिक सुख औ इन्द्रिय सुख वह मिला नहीं, फिर, किस विध निर्वाण अमित सुख मुझे मिलेगा भला कहीं। मुनि हो ऐसा कहता नहिं जिन-मत का गौरव नहिं खोता, रहा अदर्शन यही परीषह-विजयी होता सुख-जोता।।९४।।
जिन मत की उन्नति में जिनका जीवन तत्पर लसता है, उजल सलिल से भरा सरित-सा जिन में दर्शन हँसता है। रहा अदर्शन परिषयजय यह प्रमुख रहा मुनि यतियों का, उनके चरणों में नित नत हूँ विनशन हो चहुगतियों का।।९५।।
पद-पूजन संपद संविद पा पद-पद होते सुखित नहीं, निन्दनः, आपद, अपयश में फिर साधु कभी हो दुखित नहीं। दुस्सह सब परिषह सहने में सक्षम ऋषिवर धीर सभी, आत्म ध्यान के पात्र, ध्यान कर पाते हैं भव तीर तभी।।९६।।
दुष्कर तप से नहीं प्रयोजन संयम से यदि रहित रहा, परिषहजय बिन नहीं सफलता यद्यपि व्रत से सहित रहा। यम-दम-शम-सम सकल व्यर्थ हैं समदर्शन यदि ना होता, पाप पंक से लिपा कलंकित जीवन मौलिक नहिं, थोथा।।९७।।
शीत परीषह, उष्ण परीषह एक समय में कभी न हों, चा,शय्या तथा निषद्या एक साथ ये सभी न हों। ऐसा जिनवर का आगम है हम सबको यह बता रहा, अनुभव कहता, स्ववश परीषह सहो सही, फिर व्यथा कहाँ।।९८।।
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