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कंचन काया बन सकती है ऋद्धि-सिद्धि से युक्त रहा, तन का मल मुनि नहीं हटाता मल से तन अतिलिप्त रहा। चेतन मैं हूँ, चेतन में हूँ यथार्थ मल तो मल में है, कहता जाता कमल कमल में कहने भर को जल में है।।७८।।
अविरत जन या व्रती पुरुष यदि अपने से विपरीत बने, . आदर ना दे, करे अनादर यदि बनते अविनीत तने।। किन्तु मुनीश्वर लोकेषण से दूर हुए भवभीत हुए, विकार विरहित ललाट उनका रहता वे जग मीत हुए।।७९।।
अमल, समल हैं सकल जीव ये ऊपर, भीतर से प्यारे, अगणित गुणगण से पूरित सब ‘समान' शीतल शुचि सारे। मैं 'गुरु' तू 'लघु' फिर क्या बचता परिभव-परिषह बुध सहते, आर्य देव अनिवार्य यही तव मत गहते सुख से रहते।।८।।
कभी प्रशंसा करे प्रशंसक विनय समादर यदि करते, नहीं मान-मद मन में लाते, मन को कलुषित नहिं करते। प्रत्युत अन्दर घुस कर बैठा मान-कर्म के क्षय करने, साधु निरंतर जागृत रहते निज को शुचि अतिशय करने।।८१।।
निरालसी यति समिति गुप्ति में जब हो रत मन शमन करें, गणधर आदिक महामना भी उनको मन से नमन करें। मानी मुनिजन नमनादिक यदि नहिं करते मत करने दो, अर्थ नहीं उसमें, जिन कहते ‘यह परिषह' अघ हरने दो।। ८२।।
जिन श्रुत में हैं पूर्ण विशारद सम्मानित हैं बुधगण में, भाग्य मानकर सदा शारदा रहती जिनके आनन में। मानहीन हैं, स्वार्थहीन हैं दुःखी जगत को अमृत पिला, पर मततारकदल में शीतलशशि हैं यश की अमिट शिला।।८३।।
अन्तराय का अन्त नहीं हो अतुल अमिट बल मुदित नहीं, जब तक तुममें अनन्त अक्षय पूर्ण ज्ञान हो उदित नहीं। . ज्ञान क्षेत्र में तब तक निज को लघुतम ही स्वीकार करो, तन-मन-वच से ज्ञान-मान का प्रतिपल तुम धिक्कार करो।।८४।।
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