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निर्दोष हो अनल से झट लोह पिण्ड,
वात्सल्य से विमल आतम हो अखण्ड । आलोक से सकललोक अलोक देखा,
यों वीर ने सदुपदेश दिया सुरेखा ।।९७।।
वात्सल्य तो जनम से तुम में भरा था,
सौभाग्य था सुकृत का झरना झरा था। . त्रैलोक्य पूज्य जिनदेव तभी हुए हो,
शुद्धात्मा में प्रभव वैभव पा लिया हो ।।९८।।
रा,
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बन्धुत्व को लज के प्रति भानु धारा,
मैत्री रखे सुजल में वह दुग्ध धारा । "स्वामी ! परन्तु जग के सब प्राणियों में,
वात्सल्य हो, न मम केवल मानवों में ।। ९९।।
उन्मत्त होकर कभी मन का न दास,
हो जा उदास सबसे बन वीर दास । वात्सल्यरूप सर में डुबकी लगाले,
ले ले सुनाम 'जिनका' प्रभु गीत गा ले ।।१०।।
गुरु-स्मृति
आशीष लाभ यदि मैं तुमसे न पाता, तो भावनाशतक काव्य लिखा न जाता । हे ज्ञानसागर गुरो! मुझको संभालो, विद्यादिसागर बना तुममें मिला लो ।।१।।
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