SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मंगल कामना विभो! अर्ज मंजूर हो सुखी रहें सब जीव । ध्यावें निज के विषय को तज के विषय सदीव ।।१।। साधु बनो,न स्वादु बनो साध्यसिद्ध हो जाय । गमनागमन तभी मिटे पाप पुण्य खो जाय ।।२।। रत्नत्रय में रत रहो रहो राग से दूर । विद्यासागर तुम बनो सुख पावो भरपूर ।। ३ ।। रहो स्वपरोपकार में रत निश्चय उरधार। . चिर अपरिचित चित्त में चिर पुनि करो विहार ।।४।। तन मिला तुम तप करो करो कर्म का नाश । शशि रवि से भी अधिक है तुममें दिव्य प्रकाश ।।५।। तरणि ज्ञानसागर गुरो! तारो मुझे ऋषीश । करुणाकर करुणा करो कर से दो आशीष ।।६।। ज्ञानाराधन नित करूं मुझ में कुछ नहिं ज्ञान । दोष यहाँ यदि कुछ मिलें शोध पढ़ें धीमान ।।७।। बाहुबली के चरण में वर्षायोग सहर्ष । सुहाग नगरी में अहो स्थापित कर इस वर्ष ।।८।। द्वय त्रय शून्य द्वय वर्ष की श्रावण की शित चौथ । जैन नगर में लिख दिया निजानन्द का स्रोत ।।९।। (२१३)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy