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________________ संसार के विभव वित्त असार सारे, सागार भी सतत यों मन में विचारे । रोगी दुखी क्षुधित पीड़ित जो विचारें, दे, अन्नपान उनके दुख को निवारें ।।९।। हे वीर देव! तब सेवक धर्म सेवें, होवें ध्वजा विमल धर्म प्रसार में वे । सम्यक्त्व बोध व्रत से निजको सजावें ज्वाला बनें कुमत कानन को जलावें ।।९१।। अच्छा लगे तिलक से ललना ललाट, . है साम्य से श्रमणता लगती विराट । होता सुशोभित सरोवर कंज होते, सद्भावना वश मनुष्य प्रशस्य होते ।।९२।। . गङ्गा प्रदान करती बस शीत पानी . तो गाय दूध दुहती जग में सयानी । चाहूं इन्हें न, इनसे न प्रयोजना है, देती निजामृत जिनेन्द्र प्रभावना है ।।९३।। संसार सागर असार अपार खारा, कोई न धर्म बिन है तुमको सहारा । नौका यही तरणतारण मोक्षदात्री, ये जा रहे, कुछ गये उस पार यात्री ।।९४।। गो वत्स में परम हार्दिक प्रेम जैसा, साधर्मि में तुम करो यदि प्रेम वैसा । शुद्धात्म को सहज से द्रुत पा सकोगे, औ मोक्ष में अमित काल बिता सकोगे ।।९५।। वात्सल्य हो उदित ओ उर में जभी से, हैं क्रूरभाव मिटते सहसा तभी से । भानू उगे गगन भू उजले दिखाते, क्या आप तामस निशा तब देख पाते ?।।९६ ।। (२११)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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