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________________ जो पूर्ण पूरित दयामय भाव से है, औ दूर भी विमलमानस मान से है। . सेवा सुसाधु जन की करता यहाँ है, होता सुखी वह अवश्य जहाँ तहाँ है ।। ५५।। ये साधु सेवक कहीं मिलते यहाँ हैं, ___ जो जातरूप धरते जग में अहा है । प्रत्येक नाग,मणि से कब शोभता है? ... प्रत्येक नाग कब मौक्तिक धारता है?।। ५६ ।। जैसा सरोज अलि से सबको सुहाता, उद्योग से जगत में यश देश पाता । वैसा विराग मुनि से यह साधु सेवा, . होती सुशोभित अतीव विभो सदैवा ।।५७।। मैं काय से वचन से मन से सदैवा , सौभाग्य मान करता बुध साधु सेवा । होऊँ अबन्ध भवबन्धन शीघ्र छूटे, विज्ञान की किरण मानस मध्य फूटे ।।५८।। बाधा बिना सहज से जिनसे निहारे, जाते अनागत गतागत भाव सारे । शुद्धात्म में निरत जो जिनदेव ज्ञानी, वे विश्व पूज्य जयवन्त रहेंअमानी ।। ५९।। हो पूर्ण इन्द्रियजयी जितकाम आप, पाके अनन्त सुख को तज पापताप । क्रीड़ा सदैव करते शिवनारि साथ, जोडूं तुम्हेंसतत हाथ, अनाथ-नाथ ।। ६० ।। पीयूष पावन पवित्र पयोद धारा, . ज्यों तृप्त भूमि तल को करती सुचारा । त्यों शान्ति दो दुखित हूँ भवताप से जो, है प्रार्थना मम विभो! बस आप से यों ।। ६१।। (२०६)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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