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________________ ये आधि व्याधि समुपाधि सभी अनादि, से आ रही, पर मिली न निजी समाधि । चाहूं समाधि, नहिं नाक नहीं किसी को, चाहें सभी चतुर चेतन भी इसी को ।।४८।। मानी नहीं मुनि समाधि करा सकेगा, तो वीरदेव निज को वह क्या ? लखेगा । सम्मान मैं न उसका मुनि हो करूँगा, शुद्धात्म को नित नितान्त अहो स्मरूँगा ।। ४९ ।। वैराग्य का प्रथम पाठ अहो पढ़ाता, पश्चात् प्रभो प्रथम देव बने प्रमाता | मैं भी समाधि सधने बनवा विरागी, ऐसी मदीय मन में बर ज्योति जागी ।। ५० ।। लाली लगे करलता अति शोभती है, शोभे जिनेन्द्रनुति से मम भारती है । होता परागवश वात सुगन्धवाही, शोभा तभी मुनि करे मुनि की समाधि ।। ५१ ।। है भव्यकौमुद शशी जगमें समाधि, हैं कामधेनु सुर पादप से अनादि । कैसे मुझे यह मिलें कब तो मिलेगी ? हे वीर देव! कब ज्ञानकली खिलेगी ।। ५२ ।। राजा प्रजाहित करे पर स्वार्थ त्यागे, देता प्रकाश रवि है कुछ भी न मांगे । कर्तव्य मानकर तू कर साधु सेवा, पाले पुनः परम पावन बोधमेवा ।। ५३ ।। जो साधु सेवक नहीं उन मानियों को, चाहूं न मैं, नित भजूं मुनि सज्जनों को क्या चाहता कृपण को परिवार प्यारा, क्या प्यार से कुमुद ने रवि को निहारा । । ५४ ।। (२०५)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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