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हो मोह सर्प, तुम हो गरुड़ेन्द्रनामी, .
हो मुक्तिपन्थ-अधिनायक, हो अमानी । स्वामी, निरञ्जन, न अञ्जन की निशानी,
पूर्जे तुम्हें बन सकूँ द्रुत दिव्यज्ञानी ।। ६२।।
है आदि में स्वमन को फिर मार मारा,
___ हे आदिनाथातुमने तज भोग सारा । कामारि हो इसलिये जग में कहाते, . स्वामी! सुशीघ्र मम क्यों न व्यथा मिटाते ।।६३।।
वे शान्त, सन्त, अरहन्त अनन्त ज्ञाता,
वन्दूँ उन्हें निरभिमान स्वभाव धाता । होऊँ प्रवीण फलतः पल में प्रमाता,
गाता सुगीत 'जिनका' वह सौख्यपाता ।। ६४।।
इच्छा नहीं भवन की रखते कदापि,
आचार्य ये न वन से टरते प्रतापी । होते विलीन निज में विधि पङ्क धोते ,
पूजो इन्हें समय क्यों तुम व्यर्थ खोते ।।६५।।
शास्त्रानुसार चलते सबको चलाते,
पाते स्वकीय सुखको पर में न जाते, ये रागरोष तजते सबकी उपेक्षा,
. मैं तो अभी कुछ रखू उनकी अपेक्षा ।।६६।।
आचार्यदेव मुझको कुछ बोध देवो,
रक्षा करो शरण में शिशु शीघ्र लेवो। . क्या दिव्य अञ्जन प्रकाश नहीं दिलाता,
क्या शीघ्र नेत्रगत धूलि नहीं मिटाता ?।।६७।।
• ये योग में अचल मेरु बने हुए हैं,
__ ले खड्ग कर्मरिपु को दुख दे रहे हैं। आचार्य तो अमृतपान करा रहे हैं ,
ये मेघ हैं, हम मयूर सुखी हुए हैं ।।६८।।
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