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जाज्वल्यमान न कदापि चलायमाल,
हो ज्ञानदीप कर में यदि विद्यमान । रूपी दिखे, पर पदार्थ सभी अरूपी
है स्पष्टरूप दिखते जिन चित्स्वरूपी ।।२८।।
माला सुमेरुमणि से जिस भाँति भाती,
वाणी गणेश मुख से जिनकी सुहाती। संवेग से मनुज भी उस भाँति भाता,
जो है सदैव जिनका गुणगीत गाता ।।२९।।
बोले विहंगम, उषा मन को लुभाती,
शोभावती वह निशा शशि से दिखाती । हो पूर्ण शान्तरस से कविता कहाती,
शुद्धात्म में मुनि रहे मुनिता सुहाती ।।३०।।
ज्यों मारता सहज अर्जुन कौरवों को,
संवेग त्यों दुरति कर्म अरातियों को । दावा यथा सघन कानन को जलाता,
संसाररूप वन को यह भी मिटाता ।। ज्यों नाग नाम सुन मेंढक भाग जाता,
त्यों ही कषाय इसके नहिं पास आता। ऐसी विशेष महिमा इसकी सुनी रे,
संवेगरूप धन पा बन जा धनी रे!।।३१।।
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संवेग है परम सौख्यमयी उषा का,
धाता, परन्तु शशि है दुखदा निशा का । निर्दोष है यह सदा शशि दोष धाम,
संवेग श्रेष्ठ शशि से लसता ललाम ।।३२।।
सम्यक्त्वज्योति बल से रवि को हराता,
. हे तेज वाडव भवाम्बुधि को सुखाता । चाञ्चल्यचित्तमृग को यह व्याघ्र खाता,
संवेग आत्मिक महासुख का विधाता ।।३३।।
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