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________________ वैसा सुशीलव्रत संयमयोग से रे ! होते सुशोभित सुधी, न हि भोग से रे !! सिद्धान्तपारग सभी गुरु यों बताते, सद्ध्यान में सतत जीवन हैं बिताते ।। २१।। निर्भीक मैं बढ़ रहा शिव ओर स्वामी, आरूढ़ शीलरथ पै अतिशीघ्रगामी । लो ! काल व्याल - विकराल - कुचाल वाला, है भीति से पड़ गया वह पूर्ण काला ।।२२।। होता विनिर्विष रसायन से धतूरा, है अग्नि से पिघलता झट मोम पूरा । ज्यों काम देख शिव को दश प्राण खोता, विज्ञान को निरख त्यों मद नष्ट होता ।। २३ ।। संयोग पा मदन मञ्जुल कान्त का वे, जैसा नितान्त ललनाजन मोद पावे । किंवा सुखी कुमुद वारिधि चन्द्र से हो, वैसा मदीय मन मोदित ज्ञान से हो ।। २४ ।। ज्ञानोपयोग बन तू मम मित्र प्यारा, ज्यों अग्नि का पवन मित्र बना उदारा । पीड़ा मिटे, सुख मिले, भव-जेल छूटे, धारा अपूर्व सुख की न कदापि टूटे ।। २५।। स्वामी! भले ही शिर पै शशि भा रहा हो, विज्ञान से विकल शंकर ही रहा हो । . श्रीकृष्ण पाकर इसे कुछ ही दिनों में, होंगे सुपूज्य यतियों मुनि सज्जनों में ।।२६।। ज्ञानोपयोग वर संवर साधता है, चाञ्चल्यचित्त झट से यह रोकता है । भाई निजानुभवियों यति नायकों ने, ऐसा कहा सुन ! जिनेन्द्र उपासकों ने ।। २७।। (२०१),
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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