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________________ संसार से स्वतन से जड़ भोग से वे, होते निरीह बुध हैं इनको न सेवें । पीड़ा अतीव इनसे दिन रैन होती, . - शीघ्रातिशीघ्र बुझती निजबोध ज्योति ।। ३४।। कामाग्नि से जल रहा यदि पूर्ण रागी, धाता नहीं वह न शंकर है न त्यागी । तो विश्व का अमित दुःख त्रिशूलधारी, कैसे मिटाकर, बने स्वपरोपकारी ?।।३५।। ले क्षीर स्वाद रसना अति मोद पाती, पा फूल फूल-सम नासिक फूल जाती । संतुष्ट ओ तृषित शीतल नीर से हो, मेरा सुतृप्त मन तो अघत्याग से हो।।३६ ।। संतुष्ट बाल जननीस्तनपान से हो, - फूले लता ललित लो ! जलस्नान से हो । हो तुष्ट आम्रकलिका लख कोकिला वे, मेरा कषाय तज के मन मोद पावे ।।३७।। शास्त्रानुसार यदि त्याग नहीं बना है, लो ! दुःख ही न मिटता उससे अहो है । जो अन्नन्सार रस से अति ही भरा है, __ भाई कभी न मिटती उससे क्षुधा है ।। ३८।। क्या साधु से सुबुध से ऋषि से यमी से, __ भाई ! प्रशंसित रही समता सभी से । सौभाग्य है मम घड़ी शुभ आ गई है, सवगि में सुसमता सुसमा गई है ।।३९।। मैं वीतराग बन के मन रोकता हूँ, तो सत्य तथ्य निजरूप विलोकता हूँ। आलोक हो अरुण ओ जब जन्म लेता, अज्ञात को नयन भी झट देख लेता ।।४।। (२०३) .
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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