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________________ मङ्गलकामना विद्याचारित्रसम्यक्त्वैः संसारपापपुण्यविद् । द्यामनिच्छन् यतेर्भाव ऐहि ह्यलमविद्यया ।।१।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के द्वारा संसार और इसके कारणभूत पुण्य-पाप को जानने वाला तथा स्वर्ग की इच्छा न करने वाला यति का जो भाव है वह मुझे प्राप्त हो, अविद्या अज्ञान दूर हो ।।१।। सात्विकवृत्तिरादाऽभूषाऽस्माकं नु चेद्धि सा । गमिष्यामो यथा धाम श्रेयसः श्रेष्ठ ! सर्वग! ।।२।। हे श्रेष्ठ! हे सर्वज्ञ! यदि हम लोगों की आदर्श भूत वह सात्त्विक वृत्ति हो जाये तो हम कल्याण के स्थान-मोक्ष को प्राप्त हो जावें ||२|| रतिरागविरक्तोऽसि सद्गुरो ! ज्ञानसागर ! । रत्नाकराय दोषेशो दर्शनं देहि शङ्कर!।।३।। हे समीचीनगुरो ज्ञानसागरजी! आप रति तथा राग से विरक्त हो, रत्नाकर -रत्नत्रयरूप सागर की वृद्धिंगत करने के लिये चन्द्रमा हो तथा शान्ति को उत्पन्न करने वाले हो, मुझे दर्शन दीजिये।।३।। चिति स्थितेन काव्यं न मया शब्दैःकृतं शुचि। तन्तुभिश्च पटो जातो सतेति किं न सम्मतम् ।।४।। आत्मा में स्थित आपके द्वारा ही यह निर्मल काव्य रचा गया है मेरे द्वारा नहीं। तन्तुओं से पट बनता है यह क्या सत्पुरुषों के द्वारा नहीं माना गया है।।४।। भारतः सर्वदेशेषु भातु भेषु शशिप्रभा । वनेऽप्यत्र सन्तः सन्ति मृगेन्द्रा विभया इव ।।५।। भारतवर्ष सब देशों में उस तरह सुशोभित हो जिस तरह नक्षत्रों में चन्द्रमा की प्रभा। जिस प्रकार वन में सिंह निर्भय रहते हैं उसी प्रकार इस देश में सत्पुरुष वन में भी निर्भय रहते हैं ।।५।। नाना-स्वापत्तिषु श्रेयोमार्गी मुक्त्वा धृतिं न ना । . शमी दमी यमीभूत्वाऽयते वृष ह्यकर्कशः ।।६।। (१६)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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