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श्रद्धा समेत तुम में रममान होता,
वो ओज तेज तुम सा स्वयमेव ढोता । काया हि कंचन बने कि अचेतना हो,
आश्चर्य क्या ? द्युतिमयी यदि चेतना हो ।। २९ ।।
जैसा कि वृक्ष फल फूल लदा सुहाता,
माथा, धरा जननि के पद में झुकाता । ऐसे लगे कि गुण भार लिए हुए हो,
चैतन्यरूप-जननी पद में झुके हो ।। ३०।।
छत्रादि स्वर्णमय वैभव पा लिए हो,
स्वामी ! न किन्तु उनसे चिपके हुए हो । तेरी अपूर्व गरिमा गणनायकों से,
जाती कही न फिर क्या ? हम बालकों से ।। ३१ ।।
विज्ञानरूप रमणी तुममें शिवाली,
जैसी लसी अमित अव्यय कांतिवाली । वैसी नहीं शशिकला शशि में, निराली,
अत्यन्त चूँकि कुटिला व्यय - शील - वाली ।। ३२।।
देखा विभामय विभो मुख आपका है,
ऐसा मुझे सुख मिला नहिं नाप का है । जैसा यहां गरजता लख मेघ को है,
पाता मयूर सुख भूलत खेद को है ।।३३।।
सर्वज्ञ हो इसलिए विभु हो कहाते,
निस्संग हो इसलिये सुख चैन पाते । मैं सर्व संग तजके तुम संग से हूँ,
आश्चर्य आत्म सुख लीन अनंग से हूँ ।। ३४।।
आकाश में उदित हो रवि विश्वतापी,
संतप्त त्रस्त करता जग को प्रतापी ।
पै आप कोटि रवि तेज स्वभाव पाये,
बैठे मदीय उर में न मुझे जलाये ।। ३५।।
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