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________________ ज्यों ही मदीय मन है तव स्पर्श पाता, त्यों ही त्वदीय सम भासुर हो सुहाता । रागी विराग बनता तव संघ में है । लो ! नीर, दूध बनता गिर दूध में है ।। २२ ।। मानूँ तुम्हें तुम शशी तम में भरी हैं, सच्ची सुधा गुणमयी मन को हरी है । ऐसा न हो, मम मनोमणि से भला यों, सम्यक्त्वरुप झरना, झर है रहा क्यों ? ।। २३ ।। सम्मोह से भ्रमित हो जंग पाप पाता, पै आपका मन नहीं अघ ताप पाता । लोहा स्वभाव तजता जब जंग खाता, " हो पंक में कनक पै सब को सुहाता ।।२४।। हो केवली तुम बली शुचि शान्त शाला, ऐसा तुम्हें कब लखे अघ दृष्टि वाला । हो पीलिया नयन रोग जिसे हमेशा, पीला शशी नियम से दिखता जिनेशा ! ।। २५ । । ऐसी कृपा यह हुई मुझपे तुम्हारी, आस्था जगी कि तुममें मम निर्विकारी । संसार भोग फलतः रुचते नहीं हैं, प्रत्यक्ष मात्र तुम हो जड़ गौण ही है ।। २६।। स्वामी ! निवास करते मुझमें सुजागा, आत्मानुराग फलतः पर राग भागा । लो दूध 'में जब कि माणिक ही गिरेगा, क्या लाल लाल तब दूध नहीं बनेगा ? ।। २७।। वैराग्य से तुम सुखी भज के अहिंसा, होता दुखी जगत है कर राग हिंसा । सत् साधना सहज साध्य सदा दिलाती, दुःसाधना दुखमयी विष ही पिलाती ।। २८।। (830)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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