SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लो ! आपके सुभग- सौम्य शरीर द्वारा, दोषी शशी अयशधाम नितान्त हारा । वो आपके चरण की नख के बहाने, सेवा तभी कर रहा यश कान्ति पाने ।। १५ ।। लो आपकी सुखकरी कविता विभा से, मोहान्धकार मिटता अविलम्बता से । ज्योतिर्मयी अरुण है जब जाग जाता, कैसे कहूँ कि तम है कब भाग जाता ? ।। १६ ।। सौंदर्य पान कर भी मुख का तुम्हारे, प्यासा रहा मन तभी, तुम यों पुकारे ! पीयूष पी निज, तृषा यदि है बुझाना, बेटा! तुझे सहज शाश्वत शांति पाना ।।१७।। मूँगे समा अधर पे स्मित सौम्य रेखा, है प्रेम से कह रही मुझ को सुरेखा । -आनन्द वार्धि तुम में लहरा रहा है, पूजूँ तुम्हें, बन दिगम्बर, भा रहा है ।। १८ ।। नक्षत्र है गगन के इक कोन में ज्यों, आकाश है दिख रहा तुम बोध में त्यों । ऐसी अलौकिक विभा तुम ज्ञान की है, मन्दातिमन्द पड़ती द्युति भानु की है ।। १९।। है एक साथ तुममें यह विश्व सारा, उत्पन्न हो मिट रहा ध्रुव भाव धारा । कल्लोल के सम सरोवर में न स्वामी ! पैज्ञेय ज्ञायकतया, शिवपंथगामी ।। २०।। मैं रागत्याग तुझमें अनुराग लाके, होता सुखी कि जितना लघु ज्ञान पाके । तेरी बृहस्पति सुभक्ति करें, तथापि, हो स्वर्ग में नहिं सुखी उतना कदापि ।। २१ ।। (१२६)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy