________________
वे कामधेनु सुरपादप स्वर्ग में ही,
सीमा लिए दुख घुले सुख दे, विदेही ! पै आपका स्तवन शाश्वत मोक्ष-दाता,
ऐसा वसन्ततिलका यह छन्द गाता ।।३६ ।।
जो आपकी स्तुति सरोवर में घुली है,
मेरी खरी श्रमणता शुचि हो धुली है । तो साधु स्तुत्य मम क्यों न सुचेतना हो?
औ शीघ्र क्यों न कल-केवल-केतना हो? ।। ३७।।
तल्लीन नित्य निज में तुम हो खुशी से,
नीरादि से परम शीतल हो इसी से । पा अग्नि योग जल है जलता जलाता,
कर्माग्नि से तुम नहीं यह साधु गाथा ।।३८।।
लो आपकी रमणि एक गुणावली है,
दूजी सती विषदकीर्तिमयी भली है । पै एक तो रम रही नित आप में है,
कैसा विरोध यह ? एक दिगंत में है ।।३९।।
देवाधिदेव मुनिवन्ध कुकाम वैरी,
पाती प्रवेश तुम में मति हर्ष मेरी । जैसी नदी अमित सागर में समाती,
होती सुखी मिलन से दुख भूल जाती ।।४।।
उत्फुल्ल नीरज खिले तुम नेत्र प्यारे,
हैं शोभते करुण केशर पूर्ण धारें। मेरा वहीं पर अतः मन स्थान पाता,
जैसा सरोज पर जा अलि बैठ जाता ।। ४१।।
हैं आप दीनजनरक्षक, साधु माने,
दावा प्रचण्ड विधि कानन को जलाने । पंचेंद्रि-मत्त-गज-अंकुश हैं सुहाते,
हैं मेघ विश्वमदताप-तृषा बुझाते ।।४२।।
(१३२)