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सन्तों नमस्कृत सुरों बुध मानवों से,
ये हैं जिनेश्वर नमूं मन वाक्तनों से । पश्चात् करूँ स्तुति निरंजन की निराली,
मेरा प्रयोजन यही कि मिटे भवाली ।।१।।
स्वामी ! अनन्त-गुण-धाम बने हुए हो,
शोभायमान निज की युति से हुए हो । मृत्युंजयी सकल-विज्ञ विभावनाशी,
वढूँ तुम्हें, जिन बनूँ सकलावभाशी (षी)।।२।।
सच्चा निजी पद निरापद सम्पदा है,
तो दूसरा पद घृणास्पद आपदा है। हे ! भव्यकंजरवि ! यों तुमने बताया,
शुद्धात्म से प्रभव वैभवभाव पाया ।।३।।
जो चाहता शिव सुखास्पद सम्पदा है,
वो पूजता तव पदाम्बुज सर्वदा है । पाना जिसे कि धन है अयि 'वीर' देवा !
. क्या निर्धनी धनिक की करता न सेवा? ।।४।।
सत् तेज से मदन को तुमने जलाया,
अन्वर्थ नाम फ्रलरूप ' 'महेश'' पाया । नीराग हो अमति सन्मति विज्ञ प्यारे,
स्वामी मदीय मन को तुम ही सहारे ।।५।।
हे ! देव दो नयन के मिस से तुम्हारे,
. हैं वस्तु को समझने नय मुख्य प्यारे । यों जान, मान, हम लें उनका सहारा,
पावें अवश्य भवसागर का किनारा ।।६।।
उत्पाद धौव्य व्यय भाव सुधारता हूँ,
चैतन्यरूप वसुधातल पालता हूँ। पाते प्रवेश मुझमें तुम हो इसी से,
स्वामी ! यहाँ अमित सागर में शशी से ।।७।।
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