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________________ भावार्थ - यहां श्लेष से 'ज्ञानसागर' नामक विद्या एवं दीक्षा गुरु का उल्लेख किया है। लोक में प्रसिद्ध है कि समुद्र मन्थन से विष और अमृत निकले थे उनमें से देवों अमृत को ग्रहण किया था और उसके फलस्वरूप वे अमर हो गये । यहाँ ज्ञानसागर गुरु के संपर्क से अज्ञान और ज्ञान का मुझे अनुभव हुआ । उनमें से अज्ञान विषरूप है उसे छोड़कर मैं आत्मज्ञान रूपी अमृत को ग्रहण करता हूँ और उसके फलस्वरूप अमर हो जाना चाहता हूँ। जन्ममरण के चक्र से निवृत्त होना चाहता हूँ ।। १०० ।। मङ्गलकामना वि॒भावतः सुदूराणां सन्तति र्जयतात् सताम् । द्यमेत्य पुनरागत्य स्वानुभूतेः शिवं व्रजेत् ।। १ ।। साधुनासा पदं ह्येतु भूपतौ च जने जने । गुवि सर्वत्र शान्तिः स्यात् मदीया भावना सदा ||२|| पवृत्तिं परित्यज्य ना नवनीतमार्दवम् । लाभाय भजेद् भव्यो भक्त्या साकं भृशं सदा ||३|| विद्याब्धिना सुशिष्येण ज्ञानोदधेरलङ्कृतम् । रसेनाध्यात्मपूर्णेन शतकं शिवदं शुभम् ||४|| चित्ताकर्षि तथापि ज्ञैः पठनीयं विशोध्य तैः । तं मन्ये पण्डितं योऽत्र गुणान्वेषी भवेद् भवे ||५|| अर्थ - विभाव से अत्यन्त दूर रहने वाले साधुजनों की सन्तति - परम्परा जयवंत रहे जो स्वर्ग जाकर पश्चात् आकर स्वानुभूति से मोक्ष को प्राप्त करते हैं || १ || इस समय वह सा- लक्ष्मी राजा तथा जन-जन में पद स्थान को प्राप्त हो एवं पृथिवी पर सर्वत्र सदा शान्ति रहे यह मेरी भावना है ||२|| भव्यपुरुष हिंसावृत्ति को छोड़कर मक्खन जैसी कोमलता को प्राप्त हो एवं ज्ञान प्राप्ति के लिए भक्ति के साथ सदा भगवान् की आराधना करे || ३|| आचार्य ज्ञानसागर जी के शिष्य विद्यासागर ने अध्यात्मपूर्ण रस से अलंकृत, कल्याणप्रद शुभशतक की रचना की है ||४|| यद्यपि यह शतक चित्ताकर्षक है तथापि ज्ञानीजनों को शोधकर पढ़ना चाहिये । इस जगत् में मैं उसे पण्डित मानता हूँ जो गुणों का अन्वेषण करने वाला हो ||५|| (१२६ )
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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