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________________ अर्थ - हे गुरुदेव! मुझमें विद्यमान यह बुद्धि यतश्च आपके द्वारा सुसंस्कारित है अतः इस जगत् में एक आप में ही श्रद्धा को प्राप्त हुई है। अब मुझे आपके श्रेष्ठतममुख को छोड़कर यह नश्वर संसार अच्छा नहीं लगता। . भावार्थ - संसार के नश्वर भोग तभी तक अच्छे लगते हैं जब कि आप की श्रद्धा नहीं होती। यतश्च मेरी बुद्धि एक आप में ही संलग्न है अतः यह नश्वर जगत् मुझे रुचिकर नहीं है ।।२६।। ..1 [२७] सति हृदि त्वयि मेऽत्र विरागता, समुदिता गुणतामितरा गता । पयसि चेत् सुमणौ न पयोऽङ्ग ! तदरुणतां किमु याति नियोगतः ।। हे विभो! अत्र मे हृदि त्वयि सति विरागता समुदिता इतरा (रागता) गुणतां (इता) गता। चेत् सुमणौ पयसि (तदा) तत् पयः अरुणताम् किमु नियोगतः न याति (यात्येव)। __सतीति - अङ्ग! हे प्रभो! अत्रास्मिन् मे मम स्तोतुः हृदि हृदये 'चित्तं तु चेतो हृदयं स्वान्तं हृन्मानसं मनः' इत्यमरः। त्वयि भवति सति विद्यमाने विरागता विरक्तिः रागाभावतेत्यर्थः समुदिता समुत्पन्ना इतरा सरागता गुणतामप्रधानतां गता प्राप्ता 'गुणो रूपादिसत्त्वादिबिम्बादिहरितादिषु। सूदे ऽ प्रधाने सन्ध्यादौ रज्जौ मौर्त्यां वृकोदरे।' इति विश्वलोचनः। तदेवोदाहरति - चेद्यदि पयसि दुग्धे सुमणौ पद्मरागमणौ सति विद्यमाने तत्पयो दुग्धं उ वितर्के नियोगतो नियमेन किं अरुणतां रक्ततां न याति प्राप्नोति यात्येवेत्यर्थः। पयसि पद्मरागमणौ सत्येवारुणता तिष्ठति तदभावे च पलायते यथा, तथा मम हृदये त्वयि सत्येव विरागता तिष्ठति त्वदभावे च पलायते। त्वद्ध्यानमेव विरागताकारणमित्यर्थः ।।२७।। .. अर्थ - मेरे इस हृदय में आपके विद्यमान रहते हुये विरागता – वीतरागता प्रकट रहती है इससे भिन्न सरागता - अप्रधानता को प्राप्त हो नष्ट हो जाती है। ठीक ही है, यदि दूध में पद्मरागमणि रहता है तो वह दूध क्या नियम से लालिमा को प्राप्त नहीं हो जाता? अवश्य हो जाता है ।।२७।। [२८] विगतरागतया स्वमहिंसया, शिवमितोऽसि जगन्नहि हिंसया । उचितमेव सदोचितसाधनं, भुवि ददाति शुभं सहसा धनम् ।। हे जिन! विगतरागतया अहिंसया शिवम् स्वम् इतः असि । हिंसया तु जगत् (नहि) (शिवम् इतम्) (८६)
SR No.002457
Book TitlePanchshati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyasagar, Pannalal Sahityacharya
PublisherGyanganga
Publication Year1991
Total Pages370
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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