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भक्तामर-कथा।
मुझ पर बड़ा प्रकोप है । वे मेरी दिन पर दिन दशा बिगाड़ रहे हैं। मैं एक अच्छा गृहस्थ था, पर पापी कर्मोंने मुझे इस दशामें पहुँचा दिया । महाराज ! इस पापिनी दरिद्रताको दिन-रात मेरे पीछे पड़ी रहनेसे मैं बहुत दुखी हूँ । इसलिए दया करके कोई ऐसा उपाय बतलाइए जिससे यह नष्ट हो जाय । . ___ मुनिने कहा भाई न तो कोई किसीको धन दे सकता ह और न कोई किसीका धन हर ही सकता है । तब होता यह है कि जो जैसा कर्म करता है उसका उसे वैसा फल भी मिलता है । तुमने जन्मजन्मान्तरमें पाप किया होगा उसका तुम्हें भी यह फल मिला है । इसमें आश्चर्य कुछ नहीं है । हाँ इतना अवश्य है कि पुण्य पापका नाश करनेवाला है, इसलिए तुम भी जिनभगवानकी सदा पूजा-स्तुति कर पुण्यका बन्ध करो। अपने भावोंको बुरी ओर न जाने देकर पवित्र रक्खो, सब जीवों पर दया करो, परोपकार करो, अपनेसे बन सके उतनी तन-मन-धनसे दूसरोंकी सहायता करो । ये ही सब पुण्यके कारण हैं। ___ इसके अतिरिक्त मैं तुम्हें एक मंत्र सिखलाए देता हूँ, उसे सदा जपते रहना । यह कह कर मुनिराजने “इत्थं यथा तव विभूतिरभूजिनेन्द्र" इस श्लोकका मंत्र और साधन-विधि बतला दी। इससे जिनदास बहुत प्रसन्न हुआ। सच है-धनप्राप्तिके उपदेशसे किसे प्रसन्नता नहीं होती ? ___एक दिन मंत्रके प्रभावसे देवी जिनदासको एक अमोल रत्न देकर बोली-" इस रत्नके प्रभावसे तुम्हारे शत्रु नष्ट होंगे और धनकी प्राप्ति होगी।" इतना कह कर देवी चली गई।