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जिनदासकी कथा |
इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र ! धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य । याहकप्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा ताक्कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥ ३७ ॥
हिन्दी - पद्यानुवाद |
तेरी विभूति इस भाँति विभो ! हुई जो, सो धर्मके कथनमें न हुई किसीकी । होते प्रकाशित, परन्तु तमिस्र - हर्ता होता न तेज रवि-तुल्य कहीं ग्रहोंका ॥
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हे जिनेन्द्र ! धर्मोपदेशके समय जैसी आपकी विभूति हुई थी वैसी अन्य देवोंमेंसे किसीकी नहीं हुई । सच है - गाढ़ान्धकारको नाश करनेवाली जैसी सूर्यकी प्रभा होती है, वैसी प्रभा प्रकाशमान नक्षत्रोंकी नहीं होती ।
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जिनदास की कथा |
इस श्लोक मंत्रकी आराधनासे धनका लाभ होता है । उसकी कथा इस प्रकार है:
श्रीपुर नामका एक बहुत ही रमणीय नगर है । उसमें जिनदास नाम एक दरिद्री रहता था । पापके उदयसे उसके पासकी सब सम्पत्ति नष्ट हो गई । एक दिन जिनदास छहकायके जीवोंकी रक्षा करनेवाले अभयचंद्र मुनिकी वन्दना के लिए गया । बहुत श्रद्धाभक्ति के साथ मुनिको नमस्कार कर वह धर्मोपदेश सुनने के लिए वहाँ बैठ गया । मुनिराजने उसे सुखके कारण गृहस्थ - धर्मका उपदेश दिया । जिनदास उपदेश सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने अपनी शक्ति के अनुसार व्रत भी ग्रहण किए ।
इसके बाद जिनदासने हाथ जोड़ कर मुनिसे कहा - प्रभो ! कर्मोंका