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कामलताकी कथा।
वैसे सुन्दरता भी खूब बढ़ती गई । उसकी सुन्दरताको दिन-दूनी और रात-चौगुनी उन्नति करते देख कर ईर्षालु गुणोंसे उसका अभ्युदयउत्कर्ष नहीं सहा गया । इसलिए वे भी खूब तेजीके साथ कुमारी पर अपना अधिकार जमाने लगे। मतलब यह कि राजकुमारी थोड़ी ही उमरमें त्रिभुवन-सुन्दरी और बड़ी विदुषी कहलाने लग गई । उसका नाम कामलता रक्खा गया । अपने नामको वह सचमुच सार्थक करती थी।
एक दिन राजकुमारी कामलता अपनी सखियोंके साथ पालखीमें बैठ कर कहीं जा रही थी। रास्तेमें उसे एक जिनमन्दिर पड़ा । वह बहुत ही सुन्दर और विचित्र कारीगिरीसे बनाया गया था। जो उसके नीचे होकर निकलता था; वह फिर उसे बिना देखे कभी आगे नहीं बढ़ सकता था । चाहे वह फिर जिनधर्मका द्वेषी ही क्यों न होता । उसकी सुन्दरता ही इस तरहकी थी जो सबके मनको मोह लेती थी। तब राजकुमारी भी उसे बिना देखे आगे कैसे बढ़ सकती थी। वह जिनधर्मसे द्वेष रखती थी तब भी मन्दिर देखनेको गई। मन्दिर देख कर उसे बहुत प्रसन्नता हुई। इसके बाद ज्यों ही उसकी नजर जिनप्रतिमा पर पड़ी त्यों ही वह नाक-भौं सिकोड़ कर अपने सखियोंसे बोली-सहेलियो ! यह तो नंगे देवकी मूर्ति है । भला, जब स्वयं ही यह नंगी है तब अपने भक्तोंको क्या देती होगी ? वे लोग बड़े मूर्ख हैं जो 'ऐसोंकी अपनी मनचाही वस्तुकी प्राप्तिके लिए पूजा करते हैं। जिसके पास स्वयं भूषण नहीं, राज्य-विभव नहीं, धन नहीं, वह अपने भक्तोंको राज्य आदि कैसे दे सकेगी ? मुझे इसका बड़ा आश्चर्य है। तब भी लोग इसे ही पूनते हैं। जिसकी पूनासे एक बारका भोजन मिलना कठिन है उससे धन आदिकी तथा इस अपार संमारसे उद्धार पानेकी