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________________ ८४ . भक्तामर-कथा। आशा करना केवल मूर्खता है। मैं तो इसका देखना भी पसन्द नहीं करती । यह कहकर कामलता मन्दिरके बाहर मंडपमें आ खड़ी हुई। ___ वहाँ एक शीलभूषण नामके मुनि बैठे थे। कामलता मुनिकी ओर इशारा करके बोली-सखी ! देख मुझे इस नंगेमें मनुष्यत्वका कोई लक्षण नहीं दिखाई पड़ता । यह पढ़ा लिखा कुछ नहीं है । केवल पेट भरनेके लिए यहाँ आकर बैठ गया है। देख इसका पेट पातालमें बैठा जा रहा है। बेचारा भूखके मारे मर रहा है। ये लोग मूर्ख श्रावक और श्राविकाओंको ही आनन्दके कारण हैं-वे ही इन्हें देख कर बहुत प्रसन्न होते हैं। और कोई तो इन्हें कौडीके मोल भी नहीं पूछता। यदि यह नग्नाटक-दिगम्बर मुनि नहीं हुआ तो मैं इसे बातकी बातमें शास्त्रार्थमें पराजित कर निरुत्तर कर दूंगी । इस प्रकार बहुत कुछ निन्दा करके कामलता बाहर आ गई और अपने मुँहको विकृत बना कर तालियाँ बजाने लगी। उस समय कामलता गर्भिणी थी । जिन-निन्दा-जनित महापाप उसके उसी समय उदय आ गया। देखते देखते उसकी आँखें बैठ गई। उसके दाँतोंमें बेहद कष्ट होने लगा। उसके मुँह और पाँव पाले पड़ गए । उसका रूप एक साथ डरावना-सा हो गया। वह कुबड़ी हो गई। उसे कुछ सुनाई न पड़ने लगा। उसके लिए अब यहाँसे महल तक जाना भी कठिन हो गया। उसके पाँव इधर उधर पड़ने लगे। आखिर वह गिर पड़ी। उसकी यह हालत देख कर सखियोंको बड़ी चिन्ता हुई । वे उसे पालखीमें बैठाकर राजमहल ले गई। ___ राजमहलमें पहुँचते ही हाहाकार मच गया। उसके माता-पिता रोने-चिल्लाने लगे । बहुतसे वैद्य, मांत्रिक, तांत्रिक बुलवाए गए। खक
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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