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भक्तामर कथा ।
गम्भीरतारवपूरितदिग्विभागस्त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्षः । सद्धर्मराजजयघोषणघोषकः सन् खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी || ३२ ॥
मन्दारसुन्दरनमेरुसुपारिजात
सन्तानकादिकुसुमोत्करवृष्टिरुद्धा ।
गन्धोदबिन्दुलाभमन्दमरुत्प्रपाता
दिव्या दिवः पतति ते वचसां ततिर्वा ॥ ३३ ॥
हिन्दी पद्यानुवाद |
गंभीर नाद भरता दश ही दिशामें,
सत्संगकी त्रिजगको महिमा बताता, धर्मेशकी कर रहा जयघोषणा है,
,
आकाश बीच बजता यशका नगारा ॥ गन्धोद-बिन्दुयुत मारुतकी गिराई,
मन्दारकादि तरुकी कुसुमावलीकीहोती मनोरम महा सुरलोकसे है
वर्षा, मनो तव लसे वचनावली है ॥
सब दिशाओंको
वस्तुओंके प्राप्त
नाथ, जिसने अपने गंभीर और मनोहर शब्दों द्वारा शब्दमय कर दिया है, जो त्रिभुवनके प्राणियोंको उत्तम कराने में समर्थ है, जो सद्धर्मराज अर्थात् परम भट्टारक तीर्थंकर भगवानकी संसारमें जय घोषणा कर रहा है अर्थात् यह बतला रहा है कि पवित्र धर्मके अधीश्वर-प्रवर्तक आप ही हैं, और जो आपका सुयश प्रगट कर रहा है वह दुन्दुभि आकाशमें शब्द कर रहा है ।
हे प्रभो ! देवों द्वारा की गई जो मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात आदि कल्पबृक्षोंके फूलोंकी सुगन्धित जल-बिन्दु-मिश्रित दिव्य वर्षा मन्द मन्द वायुके साथ आकाशसे गिर रही है, वह ऐसी जान पड़ती है मानों आपके वचनोंकी या पक्षियोंकी श्रेणी हो ।