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________________ ७४ भक्तामर - कथा । हे प्रभो ! चन्द्रमाके समान मनोहर, सूर्यके प्रभावको रोकनेवाले - सूर्य से भी कहीं बढ़कर तेजस्वी, और सुन्दरता से जड़े हुए मोतियों से अत्यन्त शोभाको धारण करनेवाले आपके ऊपर घूमते हुए तीन छत्र, ऐसे शोभते हैं मानों वे संसारमें यह प्रगट कर रहे हैं कि तीनों जगत् के परमेश्वर आपही हैं । नरपाल ग्वालकी कथा । उक्त श्लोकोंके मंत्रोंकी आराधना करनेवाले युद्ध में विजय प्राप्त कर निर्भय होते हैं । इसकी कथा नीचे लिखी जाती है । सिंहपुर नामका एक सुन्दर नगर है । उसमें नरपाल नामका एक ग्वाल रहता है । दरिद्रता के कारण वह अपनी कुछ गायोंको लेकर जंगलमें चला गया और वहीं रह कर अपना निर्वाह करने लगा । उसके भाग्यसे एक दिन उसी जंगल में समाधिगुप्त नामके महामुनि आ गए। उन्हें देख कर वह बहुत प्रसन्न हुआ। इसके बाद वह उन्हें प्रणाम कर उनके चरणोंके सामने बैठ गया और हाथ जोड़कर बड़े विनय से बोला- दयासागर ! मैं बड़ा दरिद्र हूँ । मेरे पास खानेका भी ठिकाना नहीं है । इसलिए कोई ऐसा उपाय बतलाइए, जिससे इस पापिनी गरीबी से मेरा पिंड छूट जाय । महाराज ! मैं बहुत दुखी हो गया हूँ । मुनिराज बोले- माई धर्म सबका सहायक है। तू भी उसे धारण कर । वह तेरी भी सहायता करेगा । यह कह कर मुनिराजने उसे धर्मका साधारण स्वरूप समझा कर अंतमें भक्तामरकी आराधना करनेको कहा; और उसके साथ मंत्र बतला कर यह कह दिया कि इसकी प्रतिदिन जाप किया करना । ग्वालको मंत्र जपते जपते छह महीने बीत गए । एक दिन चक्रेश्वरीने आकर उससे कहा- मैं तुझ पर प्रसन्न हूँ और तुझे वर देती हूँ कि तू राजा होगा । पर याद रखना — जिस धर्मके प्रभावसे तू राजा होगा फिर कहीं ऐश्वर्य के अभिमा
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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