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जयसेनाकी कथा।
उसे सम्यग्दर्शन, आठ मूलगुण, पाँच अणुव्रत, सात शील आदिका स्वरूप समझा दिया।
कुन्दावदातचलचामरचारुशोभं
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् । उद्यच्छशाङ्कशुचिनिर्झरवारिधार
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शातकौम्भम् ॥ ३० ॥ छत्रत्रयं तव विभाति शशाङ्ककान्त
मुच्चैस्थितं स्थगितभानुकरप्रतापम् । मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभं प्रख्यापयत्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥ ३१ ॥
___ हिन्दी-पद्यानुवाद । तेरा सुवर्णसम देह विभो ! सुहाता __ है, श्वेत कुन्दसम चामरके उड़ेसे। सोहे सुमेरुगिरि; कांचन कांतिधारी, ___ ज्यों चन्द्रकान्तिधर निर्झरके बहसे ॥ मोती मनोहर लगे जिनमें, सुहाते
नीके हिमांशुसम, सूरजतापहारीहैं तीन छत्र शिरपै अतिरम्य तेरे,
जो तीन-लोक-परमेश्वरता बताते॥ हे भगवन् ! समवशरणमें आपके सोनेके समान सुन्दर शरीर पर जो इन्द्रादिक देव कुन्दपुष्पके समान उज्ज्वल चंवर ढोरते हैं, उस समयकी सुन्दर शोभा ऐसी दीख पड़ती है मानों सुमेरु पर्वतके सुवर्णमय तटसे गिरते हुए झरनेकी चन्द्रमा-समान निर्मल जलकी धारा गिर रही हो।