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जयसेनाकी कथा।
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नहीं, जो कि गुरुओंके खाने योग्य हैं, और घर घर भीख माँगता फिरता है । इस पापीका देखना ही पाप है, छूना तो दूर रहा । इस पर भी हमारे महाराजकी अंध-भक्ति बड़ी ही विलक्षण है। जो सच्चे और सभ्य गुरु आते हैं उन्हें तो कभी भोजनका एक टुकड़ा भी नहीं देते और ऐसे नंगे, निर्लज्ज, असभ्य, भिखमंगोंकी भक्ति-पूजाके मारे गद्गद हो उठते हैं। मेरा वश पड़ता तो मैं इन्हें राज्यभरसे निकाल बाहर करती । ___ इस प्रकार रानीने शान्त-सीधे तपस्वी, शत्रु मित्र पर समान भाव रखनेवाले और परम वीतरागी मुनिकी खूब निन्दा की और आहार करके जाते समय उन्हें दो चार बुरे वचन भी सुना दिए। पर मुनिराज उसकी कुछ परवा न कर शान्तिके साथ वनकी ओर चल दिए। ___ इसके कुछ ही दिनों बाद मुनिकी निन्दाके फलसे रानीके कोढ़ निकल आया । उसकी सब रूप-सुधा विरूप-विषके रूपमें परिणत हो गई । सारा शरीर अग्निसे झुलसे हुएकी भाँति दीखने लगा। उससे बदबू निकलने लगी। पीब, खून आदि बहने लगा। हाथपाँव गल निकले । सच है-तीव्र पापका फल उसी जन्ममें मिल जाया करता है। __ रानीकी थोड़े दिनोंमें ऐसी हालत देख कर राजाको बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने रानीसे पूछा-सच तो कहो कि एकाएक यह क्या हो गया ?
रानी बोली-महाराज ! उस दिन अपने यहाँ जो वे महातपस्वी और ज्ञानी मुनि आहारके लिए आए थे, मैंने उनकी बेहद्द निंदा कर उन्हें बुरे बचन कहे थे । जान पड़ता है उसी महापापका यह