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भक्तामर - कथा ।
हे भगवन् ! रत्नोंकी किरणोंसे विचित्र सुन्दरता धारण करनेवाले सिंहासन पर सोने के समान आपका निर्मल शरीर ऐसा सुन्दर जान पड़ता है, मानों उदयाचल पर्वतके शिखर पर सूर्यबिम्ब, जिसकी कि किरणें आकाशमें सब ओर फैल रही हैं, शोभता हो ।
जयसेनाकी कथा |
जो जन इस श्लोक के मंत्री शुद्ध भावसे आराधना करते हैं वे रोगादि रहित होकर सुन्दर शरीरके धारक होते हैं । इसकी कथा इस प्रकार है ।
अंकलेश्वर नामक एक नगर है । उसके राजाका नाम जयसेन हैं । और उनकी रानीका नाम जयसेना है । राजा जैनी हैं, और रानी मिथ्यात्वकी पालन करनेवाली है ।
एक दिन गुणभूषण मुनि आहारके लिए अंकलेश्वरमें आए । वे बड़े ज्ञानी थे और तप भी खूब करते थे । उससे उनका शरीर बहुत कृश हो गया था । राजाने उन्हें अतिशय श्रद्धा-भक्ति के साथ पवित्र आहार करा कर बहुत पुण्य बंध किया ।
रानीको यह बहुत बुरा जान पड़ा । उसका मन जैन साधुओं के सम्बन्धमें बहुत खराब रहा करता था । वह सदा कुगुरुओंकी प्रशंसा और जैन-मुनियोंकी निन्दा किया करती थी । उसने गुणभूषण मुनिकी भी निन्दा की । वह मन-ही-मन कहने लगी- यह कैसा धृष्ट है-निर्लज है, जो न किसीके कुलीन घरको देखता है और न राजघराने का विचार रखता है, किन्तु पशुओं की तरह जहाँ तहाँ चला आता है। इसे घर घर भीखके लिए मारे मारे फिरते लज्जा भी नहीं आती । फिर इसकी यह कितनी बड़ी भारी मूर्खता है जो अत्यन्त सुलभता से प्राप्त होनेवाले वनके पवित्र अन्न, शाक, कन्दमूल आदि तो खाता