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________________ रूपकुंडलाकी कथा । यह विचार कर रूपकुण्डला सब बन्धु-बांधवों से मोहपाश तुड़ा कर अपनी कुछ सखियों के साथ साध्वी बन गई और फिर अपनी शक्तिके अनुसार खूब तप कर स्वर्गमें चली गई । भक्तामर स्तोत्रका इस प्रकार अचिंत्य और अश्रुतपूर्व महात्म्य देखकर बहुत से अन्य धर्मियोंने जैनधर्म स्वीकार किया । बिना कारण के कार्य नहीं होता है । ऋषियोंने जो यह लिखा है कि 'धर्मात्सर्वसुखं नृणां ' वह बहुत ही सत्य लिखा है । इसलिए जिन्हें अपनी आत्माको कुगतियोंके दुःखोंसे बचा कर सद्गतिमें पहुँचाना है, जिन्हें शत सहस्रों आकुलताओंसे जर्जरित अपने जीवनको शान्ति - सुधा - धारा द्वारा अमर बनाना है और जिन्हें अनन्त अगाध, संसार-समुद्र पार करके अनंत, अविनश्वर, अखण्ड, अचिन्त्य मोक्ष- सुख प्राप्त करना है, उन्हें उचित है - उनका कर्त्तव्य है कि वे धर्मरूपी अमोल रत्नकी प्राप्तिसे अपने आत्माको रहित न होने दें। यह लाख बातकी एक बात है। इसे हृदयमें लाना चाहिए । सिंहासने मणिमयूखशिखाविचित्रे विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् । बिम्बं वियद्विलसदंशुलतावितानं ६९ तुङ्गोद्यादिशिरसीव सहस्ररश्मेः ।। २९ ।। हिन्दी पद्यानुवाद | सिंहासन स्फटिक - रत्न जड़ा, उसीमें भाता विभो ! कनककान्त शरीर तेरा । ज्यों रत्न- पूर्ण- उदयाचल शीशपै जा फैला स्वकीय किरणें रवि-बिम्ब सोहे ॥
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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