________________
रूपकुंडलाकी कथा।
mmmm यह विचार कर रूपकुण्डला अपनी सखियोंके साथ उन्हीं मुनिके पास पहुँची और उन्हें नमस्कार कर बोली-भगवन् ! मेरी रक्षा कीजिए। मुझ पापिनीने आपका बड़ा भारी अपराध किया है । स्वामी ! मैं नहीं जानती थी कि मुझे अज्ञानका ऐसा घोर फल मिलेगा । प्रभो, आप संसारका उपकार करनेवाले हैं, सब जीवों पर दया करते हैं और उनको हितका उपदेश देकर कुगतियोंके दुःखोंसे बचाते हैं। नाथ ! मैं भी पापकी कठिन मारसे मरी जा रही हूँ। मेरे अपराधको क्षमा कर मुझे बचाइए-मेरा उद्धार कीजिए । आपके बिना कोई मेरी रक्षा करनेको समर्थ नहीं है । दयासागर ! आपके पाँवों पड़ती हूँ, मेरी रक्षा कीजिए।
मुनिने कहा-राजकुमारी ! संसारमें कोई किसीका रक्षक नहीं है। सबका रक्षक उनका पुण्य-कर्म है । इसलिए तू भी पुण्यके द्वारा अपने पापोंको नष्ट करनेका प्रयत्न कर । मैं तुझे सुमार्ग पर चलनेका रास्ता बतलाए देता हूँ। उस पर चल कर तू अपनी आत्माका उद्धार कर सकेगी। सुन, वह मार्ग यह है, कि तू मिथ्यात्वको छोड़ कर शुद्ध सम्यग्दर्शन और काँके नाश करनेवाले पवित्र जिनधर्मको ग्रहण कर, इससे तुझे शान्ति मिलेगी, तेरे पाप नष्ट होंगे। __ राजकुमारी बोली-नाथ ! किसे तो सम्यग्दर्शन कहते हैं और किसे धर्म कहते हैं ? यह तो मैं कुछ भी नहीं समझती । फिर मैं किसे ग्रहण करूँ ! इसलिए इनका खुलासा स्वरूप समझा दीजिए। मुनिराज बोले-अच्छी बात है । सुन, मैं तुझे सब ममझाए देता है।
सच्चे देव, सच्चे गुरु, और सच्चे शास्त्र अथवा सात तत्वोंके श्रद्धान करनेको सम्यग्दर्शन कहते हैं।