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________________ भक्तामर-कथा। सच्चे देव वे हैं, जिनमें राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, भूख, प्यास, आदि दोष नहीं हैं, जो सारे संसारके जाननेवाले अर्थात् सर्वज्ञ हैं, सबके हितका उपदेश करनेवाले हैं, जिन्हें इन्द्र चक्रवर्ती आदि. बड़े बड़े पुरुष भी सिर झुकाते हैं, और जिनसे सब अपने कल्याणकी चाह करते हैं। ___ सच्चे गुरु वे हैं जिन्हें इन्द्रियोंकी लालसा कभी छू भी नहीं पातीसंसारी जीवोंकी तरह वे इन्द्रियोंके गुलाम न बन कर उन्हें अपना गुलाम बनाए हुए हैं, जिन्होंने इन्द्रियोंको अपने वश कर लिया है। जिनके पास न धन-दौलत है, न चाँदी सोना है, न हीरा-माणिक है, न घर-बार है, न स्त्री-पुत्र है अर्थात् वे सबसे मोह छोड़े रहते हैं; और जो न धंदा-रोजगार करते हैं, न घर-बार बसाते हैं, न खेती. बाड़ी करते हैं; किन्तु सदा शान्त-चित्त रह कर आत्मानुभव; शास्त्राभ्यास, ध्यान आदि किया करते हैं, जिनके लिए तलवार चलानेवाला शत्रु और उपकार करनेवाला मित्र, निन्दा करनेवाला, स्तुति करनेवाला, तथा महल, मसान, काँच, कंचन-ये सब समान हैं-जिनकी सब पर समान दृष्टि है। सच्चा शास्त्र वह है जिसे सर्वज्ञने बनाया है। क्योंकि सर्वज्ञके बिना पदार्थोंका ठीक ठीक वर्णन कोई नहीं कर सकता; और न भूत भविष्यत् , वर्तमानके जाने बिना पदार्थोंका वर्णन ही हो सकता है। इसलिए सर्वज्ञ ही सच्चा शास्त्र रच सकता है । इसके सिवाय जिसमें किसी तरहका विरोध न आता हो-जैसाकि अन्य शास्त्रोंमें कहीं तो देखा जाता है कि 'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' अर्थात् किसी जीवकी हिंसा मत करो; और कहीं इसके विरुद्ध देखा जाता है-जैसा कि " न मांसभक्षणे दोषो न मये न च मैथुने । प्रकृत्तिरेषा
SR No.002454
Book TitleBhaktamar Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaylal Kasliwal
PublisherJain Sahitya Prasarak karyalay
Publication Year1930
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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