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भक्तामर-कथा।
अपने मुँहमें धर लिया
'पापकी प्रचारार देखते देखते को
___ ऋषियोंका कहना है, कि प्रचण्ड पापका फल उसी. भवमें भी उदय आ जाता है । यही हाल रूपकुण्डलाका भी हुआ। उसने एक संसार-निरीह मुनिराजकी निन्दा कर जो दुष्कर्मोका बंध किया, उससे वह फिर थोडे दिनभी सुखसे नहीं रह सकी । उसका वह सब स्वर्गीय सौन्दर्य नष्ट हो गया । उसका चाँदसा मुख काला और भयंकर बन गया; मानों चन्द्रमाको सदाके लिए राहुने अपने मुँहमें धर लिया हो। उसका सोनेकासा शरीर देखते देखते काला पड़ गया । यौवन-सरोवर 'पापकी प्रचण्ड गरमीसे सूख गया। उसकी कमलसी सुन्दर आँखें कुम्हला गई-उनमें गड्ढे पड़ गए । भौरेसी काली भौंएँ सफेद हो गई। कानोंमें छेद हो गए । उसकी कीर-नासासे दिन रात खूनकी धारा बहने लगी। कोढ़ निकल आया। उससे उसके सब हाथ-पाँव गल गए । मानों स्वर्गकी सुन्दरीने नारकी-विक्रिया धारण कर ली हो। रूपकुण्डलाके इस प्रसादसे उसके पास रहनेवाली सखियाँ भी न बच सकीं । उनके रूपमें भी कुछ कुछ विकृतपना दिखाई पड़ने लगा । अग्निकी भयंकर ज्वालासे उसके आस-पासकी वस्तुएँ भी जल जाती हैं।
रूपकुण्डलाने अपने रूपका आकस्मिक परिवर्तन देख कर सोचायह क्या हो गया ? एकदम मेरी ऐसी दशाके होनेका क्या कारण है! विचारते विचारते उसे याद आया कि हाँ मैं अब समझी । उस दिन मैंने जो उस साधुकी बहुत निन्दा की थी और उस बेचारेने तब भी मुझसे कुछ नहीं कहा था-अपना घोर अपमान सह कर भी उसने मुझे कोई हानि नहीं पहुँचाई थी, जान पड़ता है कि वह कोई साधारण पुरुष न होकर बड़ा भारी सिद्ध है और उसीकी निन्दाका मुझे यह भयंकर फल मिला है। तब मुझे उन्हींकी शरणमें जाना चाहिए । वे ही अब मुझे इस पापसे छुड़ा सकेंगे।