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रूपकुंडलाकी कथा।
धारा नामकी एक प्रसिद्ध नगरी है । वह बहुत समृद्धिशालिनी और गोपुरोंसे शोभित है । उसमें सत्पुरुषोंका निवास है। इन सब शोभाओंसे वह पृथ्वीकी तिलक-सदृश जान पड़ती है। उसके राजाका नाम भूपाल था । वे प्रजाका पालन नीति और प्रेम-पूर्वक करते थे। उनकी रानीका नाम पृथ्वीदेवी था । वह शील-सौभाग्यादि गुणोंसे संसारका एक उज्ज्वल महिला-रत्न थी । इनकी राजकुमारीका नाम रूपकुण्डला था। वह जैसी सुन्दर थी, वैसी विदुषी भी थी । हरएक तरहकी कलाओंको बहुत अच्छा तरह जानती थी। इसके साथ उसमें एक बुराई भी थी। वह यह कि उसे अपनी विद्या, अपने सौन्दर्यकाः बहुत अभिमान था । अभिमानके मारे वह संसारको तुच्छ समझती थी और चाहे कोई कैसा ही गुणवान् हो, सुन्दर हो, वह सबकी निन्दा ही किया करती थी। . एक दिन रूपकुंडला अपनी सखियोंके साथ वनक्रीडा करनेको गई। वहाँ उसने एक दुबले-पतले और पसीने आदिके निकलनेके. कारण कुछ मलिन शरीर हुए पिहिताश्रव मुनिको देखा । उन्हें देख कर रूपकुण्डला नाक-भौं सिकोड़ कर मुनिकी निन्दा करने लगी । वह अपनी सखियोंसे बोली-सहेलियो ! देखो, यह मुनि कैसा अपवित्र है । जान पड़ता है यह कभी नहाता-धोता नहीं है। देखो, कैसा पशुकी तरह नंगा खड़ा हुआ है । इसे कुछ भी लाज-शर्म नहीं है । बड़ा ही नीच है । मैंने तो कभी ऐसा निर्लज्ज पुरुष नहीं देखा । इसे. देखकर मुझे बड़ी घृणा होती है । चलो यहाँसे जल्दी चलो । मुझसे यहाँ खड़ा नहीं रहा जाता । इस प्रकार मुनिकी खूब निंदा करने पर भी उसे सन्तोष नहीं हुआ । इस कारण चलते समय वह उन्हें पत्थ-- रोसे भी मारती गई।