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भक्तामर-कथा।
कारण मारा ही गया । चल, हट यहाँसे ! मुझे तेरी चाह नहीं । तू जानती है कि मैं अपने गुरुके दिये व्रत पर कितना दृढ़ हूँ ! चाहे मेरे प्राण भी चले जायँ, पर मैं व्रतको कभी नहीं छोडूंगा । मैं समझता हूँ कि प्राणोंके नष्ट होनेका दुःख उसी क्षण होता है, पर व्रतभंगका दुःख भवभवमें भोगना पड़ता है । संसारमें अनेक भवोंको कष्टके साथ बिता कर बड़ी कठिनतासे प्राप्त हुए शीलरूपी अमोल रत्नको सत्पुरुष तुच्छ धन-सम्पत्तिके साथ नहीं बेच दिया करते हैं। __ दूसरे, तूने जो परलोक, पुण्य, पापको कोई चीज नहीं बतलाया, यह
भी तेरा भ्रम है । जान पड़ता है तुझे अभी दुर्गतियोंमें खूब सड़ना है। इसी कारण ऐसी निडर होकर बक रही है । यदि परलोक, पुण्य, पाप कोई वस्तु न होती तो हम जो प्रतिदिन अपनी आँखोंसे एकका मरना, एकका उत्पन्न होना, एक धनी, एक निर्धन, एक सुखी, एक दुखी, एक रोगी, एक निरोगी आदि देखते हैं, यह सब क्या है ? इन बातोंके देखते हुए परलोक आदिका अभाव नहीं माना जा सकता; किन्तु सद्भाव ही स्वयं-सिद्ध है ।
युवतीने धनमित्रके उत्तरको सुन कर बहुत प्रसन्न होकर कहाधनमित्र ! मैं एक अमराँगना हूँ। मैं तो केवल तेरी परीक्षाके लिए आई थी। मैंने तुझे तेरे संकल्पपर बहुत दृढ़ पाया। इससे मुझे बहुत प्रसन्नता हुई । जो तुझे चाहिए वह माँग, मैं देनेको तैयार हूँ । धनमित्रने लज्जित होते हुए कहा-देवी ! यदि मुझ पर तुम्हारी कृपा है, तो मुझे कुछ धन प्रदान कर मेरी दरिद्रता नष्ट कर दो; कारण संसारमें बहुतसे पदार्थोंके रहते हुए भी प्यासा तो जल ही माँगेगा । देवीने 'तथास्तु' कह कर कहा-अच्छा धनमित्र! अपने कोठोंको आज तुम लकड़ियोंसे भर देना, वे सब सोनेके हो जायेंगे । देवीके कहे माफिक